Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ११६

पंथ खालसा अुतपति करि कै।
तुरक तेज की जड़्हां अुखरि कै।
बरख बतीस इकादश मास।
जग महिण कीनसि धरम प्रकाश ॥३४॥
सिज़ख अनेकनि को गति१ दीनी।
दुख ते बचे शरन जिन लीनी।
सज़त्रह सहस पैसठा२ अूपर।
कातिक शुदि पंचै दिनसुरगुर३ ॥३५॥
रही जामनी जाम सवा जबि४।
सज़चिखंडि पहुणचे श्री गुर तबि।
अविचल नगर नाम शुभ थान।
भयो देहुरा जोति महान ॥३६॥
श्री हरिराइ पाइ*+ गुरिआई।
तबहु नुरंगे दिज़ली पाई।
पतिशाहित कहु मालक भयो।
राज तेज जिन बड बिरधो५ ॥३७॥
बहुतनि कै६ करि कै अपराधू।
महां कुकरमि, कशट दै साधू७।
गुर घर सोण बहु द्रोह कमावा।
करो अकरम दुशट दुख पावा ॥३८॥
सुनि सभि सिंघ प्रसंन महाना।
हाथ जोरि कै बाक बखाना।
नौ गुर की सभि कथा बखानो।
तुम सरबज़ग सरब ही जानो ॥३९॥
इह सभ प्रथमे कथा सुनै।


१मुकती।
२-१७६५।
३वीरवार।
४सवा पहिर जदोण रात रही।
*+पा:-पास।
५वधाइआ।
६बहुतिआण दा।
७कशट देण वाला भलिआण पुरशां ळ।

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