Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) ११५
१४. ।गुरू जी दा मिहरवान ळ मनाअुणा॥
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दोहरा: मिहरवान परयंक पर, लदो अधिक हंकार।
श्री हरि गोबिंद छिमा निध, बैठे तरे निहार ॥१॥
चौपई: सहि न सको बिधीए तबि कहो।
अुचितानुचित नहीण इन लहो।
अूपर बैठहु, कोण थिर तरे।
आप शिरोमणि सभि जग करे ॥२॥
पीरन पीर, मीर सिर मीर।
रावर ते को अूच न धीर।
सुनि सतिगुर ने बाक बखाने।
हम पित ते इस पिता महाने ॥३॥
अरु इह बय महि अहैण बडेरे।
हम जनमे पीछे, सु छुटेरे।
अूचे अुचित बडो इह भाई।
हम नीचे बैठनि बनिआई ॥४ ॥
सुनि गुर बच तूशन हुइ रहे।
दुखति बिअदबी नहि सिख सहे।
कितिक बेर बोलो नहि जबै।
म्रिदुल गिरा श्री गुर कहि तबै ॥५॥
करहु बदन सनमुख रिस छोरि।सुख के बाक कहो मम ओर।
कोण पुकार करते तुम फिरो?
बसो सुधासर पुरि महि थिरो ॥६॥
घर धन भूम पदारथ जोइ।
कहो आप हम देवैण सोइ।
दीन बनहु कोण तुरक अगारी?
एको लाज हमारि तुमारी ॥७॥
गुरू पदारथ सगरे दीने।
कोण न मिलहु भुगतहु सुख पीने?
इक तो जग महि अपजस पावहु।
दूजे हम सोण बैर बढावहु ॥८॥