Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) ११९
सेवक के बसि प्रेम बिशाला।
चाहति हैण प्रसथान बिकुंठ को
मोहि बडाई दै कीनि निराला।
संकट बोग१ कु मोहि बधो
बस नांहि चलै तिन के बच नाला- ॥४॥
श्री गुर अंगद बीच खडूर के
आइ प्रवेश भएनिज थाईण।
मौन धरे नहिण कौन मिलेण
बिच भौन बरे पिख माई भिराई।
बूझति श्री गुर नानक की सुध
कौन से थान तजे सुखदाई?
कोण तुम कोठरी आनि थिरे
मन भंग२ अहै, मुख ना बिकसाई? ॥५॥
तूशनि ठानि भनो कुछ नांहिन
आनन दीरघ सास भरो।
लोचन नीर बिमोचति, सोचति
लोचति हैण चित मेल करो।
ऐस दशा पिखि जानी रिदे तिन
-श्री गुर ना इस लोक थिरो।
आपने धाम बिकुंठ गए
इन बोग३ भयो दुख दीह धरो- ॥६॥
फेर भिराई ने बूझन कीनसि
श्री गुर को परलोक भयो?
यौ सुनि कै गुर अंगद ने
तबि तांही के संग बखान कयो।
मोहि कछू नहिण भावति है,
दिखिबे सुनिबे चित खेद थियो४।
अंतरि होइ इकंत निरंतर
१विछोड़े दा दुज़ख।
२ढज़ठा होइआ।
३विछोड़ा।
४दुख हुंदा है।