Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) ११६
१५. ।सअुदागर। बरात श्री नगर॥
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दोहरा: कलीधर रोके जबहि, न्रिप* सुत दियो पठाइ।
भीमचंद सुधि पाइ सभि, और पंथ गमनाइ ॥१॥
चौपई: क्रम क्रम करे अुलघति आयो।
पाइ कशट कछु बस न बसायो।
तिस ही मग को एक सुदागर।
गुर को सिख धनवान अुजागर ॥२॥
करे खरीदन अस कशमीर।
बली अनिक अरु पुशट सरीर।
इक सौ बीन बीन करि लायो।
चाहति है गुर ढिग पहुचायो ॥३॥
जबि तिस देश बिखै चलि आवा।
बाह प्रसंग सकल सुनि पावा।
-तिस मग सतिगुर दीए न जान।
इत को आवति करहि पयान- ॥४॥
रिदै बिचारो -कुमति पहारी।
जे गुर संग दैश को धारी।
तौ मुझ संग बिगर करि जाइ।
हय छीनहि निज बल दिखराइ ॥५॥
नहि गुर के ढिग पहुचनि दै हैण।चमूं अधिक सोण बस न बसै हैण-।
इम बिचार, करि कूच बडेरे।
पहुचो सिरी नगर के नेरे ॥६॥
तहां सुनी सतिगुरू दिवान।
पठो गुरू को अुतरो आनि।
संग पंच सै जिस असवार।
दिढ सैना बाणधे हज़थार ॥७॥
सुनति सुदागर बंदन ठानी।
धंन धंन सतिगुरनि बखानी।
अपनी वसतु संभारहु आप।
*पा:-निज।