Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ४) ११८
१५. ।मेल दी विदैगी॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>१६
दोहरा: गंगा मंगल संग तबि, करति निछावर नद१।
अपर सरब ने अुठि करी, खरचहि दरब बिलद ॥१॥
चौपई: पिखिनि सनूखा२ मुख को लागी।
रिदा अनद भरो बडि भागी।
पाइ ओलि महि३ धन की थाती।
अविलोकति भई सीतल छाती ॥२॥
पुन अुठि अुठि करि सगरी दारा।
जथा अुचित झोरी धन डारा।
पिखति बधू को मुख हरखाई।
करहि सराहनि सुंदरताई ॥३॥
हे अलि४! गंगा के बडिभागा।
जिस को जग गुरु अहैण सुहागा।
बहुत पुज़त्र जनु चंद अमंदू५।
को अस त्रिय, पिखि है न अनदू ॥४॥
तिह सुत संगि सुनूखा सोही।
रामचंद जनु सीता होही।
इह जोरी जीवहु चिरकाला।
इम सम सुंदर रूप बिसाला ॥५॥
अुतसव जथा जोग करि गंगा।
सभि को सनमानित हित संगा।
नानाभांतिनि बनो अहारा।
सूखम चावर दौनि प्रकारा ॥६॥
मधुर सलवं सु मेवा डाले।
गरी बदामनि छील६ बिसाले।
पिसता साद सावगी पाए।
१वारने करदी है पुज़त्र अुपरोण।
२ळह।
३झोली विच।
४सखी।
५निहकलक चंद्रमा वत।
६छिज़लके।