Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि१०) ११९
१६. ।करतार पुर निवास। दिज पुज़त्र मोइआ॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>१७
दोहरा: बसति भए श्री सतिगुरू,
अपने पुरि करतार।
ब्रिंद संगतां दिशिनि१ ते,
आवहि चली अुदार ॥१॥
चौपई: परब दिवस महि लागहि मेला।
पुरि ग्रामनि ते होइ सकेला।
संत महंत मसंद बिसालै।
पहुचे तजि निज देशन जालै ॥२॥
संनासी बैरागी घने।
सिज़ख संगतां को किम* गिने।
भांति भांति की लै अुपहार।
पहुचहि सतिगुर के दरबार ॥३॥
दरशन परसहि बाणछति पावहि।
मेला होति दिशनि१ ते आवहि।
सज़तिनाम अुपदेशनि करैण।
सुनि गुर ते मन महि सिख धरैण ॥४॥
केतिक ब्रहम गान को पाइ।
आनद आतम बिखै समाइ।
केतिक नव निधिनि को पावैण।
जनम जनम के कशट मिटावैण ॥५॥
सिज़ध अठारहि प्रापति होइ।
अग़मत सकल भांति की कोइ।
सभिकिछु बसहि गुरू दरबार।
देति सेवकनि सदा अुदार ॥६॥
इस बिधि केतिक दिवस बिताए।
पुरि करतार बसे सुख पाए।
बल बुखारा आदिक देश।
आनहि अरपहि हयनि विशेश ॥७॥
१(चारोण) पासिआण तोण।
*पा:-तिन।