Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२२

पावन पावन* लेहिण निहारी१ ॥१४॥
श्रौन सुने सभि के बचना
नहिण बाक कहो तिन संग भिराई२।
मौन करे मुख बैठि रही
बिच भौन थिरे सिख जे समुदाई।
जानि गए मन मांहि तबै
-गुरअंगद जी कित हैण इस थाईण-।
फेर करी बिनती कर जोरि कै
माई जी! श्री गुर देहु बताई ॥१५॥
बैन कहो नहिण भै करि कै
सभिणहूं मिलि बात बिचारनि ठांनी।
-श्री गुर अंगद की बरजी३
मरजी बिन कोण सु बताइ निशानी-।
बुज़ढे निहारन कीन इतै अुत
कोठड़ी देखि चहूं दिशि जानी।
-बंद इही दर जानो परै
गुरु होइण तु होइण थिरे इस थानी४- ॥१६॥फेर मिले सभि सोण निरने करि
-हैण निशचे इस कोठड़ी मांही-।
बंदन ठानि भनी बिनती
मम नाम बुढा लखि आयो इहां ही।
श्री गुर नानक दीन मुझै बर
-मैण जहिण होवौण पछानैण तहां ही।
संगति मेरी सदीव करो
जेई रूप धरोण, गुपतै तुव नांही५- ॥१७॥
आप अलोप भए जबि ते
तब ते बहु बाकुल देखे बिना।


*पा:-पावन पाद सु।
१पविज़त्र चरनां ळ देख लईए।
२भिराई ने।
३वरजी होई है।
४इस थां विच।
५किअुणकि तुसी सदा मेरी संगत करदे हो, जो रूप मैण धाराण, तुहाथोण लुकिआ नहीण रहेगा।

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