Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२३
आनि भए तुम गोप इहां,
कित संगति जाइ अधीर मना।
खोजि फिरे बहु चिंत करे
नहिण देखति भे किस थान जना१।
आवहु बाहिर रूप दिखावहु
सेवहिण सिज़ख अनद घना ॥१८॥
यौण कहि बुज़ढे ने आपनै हाथ
अुखारि, चिनो दर२ खोलनि कीना।
बैठे समाधि अगाधि३ करे
कवलास के अूपर शंभु असीना४।शांति ब्रिती, समुदाइ रिखीक
अचंचल५ हैण, इक रूप बिलीना६।
हेरि सभै कर जोरि७ खरे,
अभिबंदन ठानहिण८ होइ प्रसीना९ ॥१९॥
नांहि समाधि अगाधि छुटी
पुनि माई भिराई के साथ कहै।
आप कहो जिमि बाहर आवहिण,
दीन दिआल की बानि अहै।
कीन सभै बिनती कर जोरि
करो करुना गन सिज़ख चहैण।
बैठि सिंघासन जो कमलासन१०,
देहु दिदार कलूख दहैण११ ॥२०॥
दास अुधारन को इस कारन
१किसे थां नहीण दिज़से सिज़खां ळ।
२बंद दरवाग़ा।
३डूंघी।
४(मानो) कैलाश परबत ते शिवजी इसथित होए हन।
५इंदरीआण चंचलता तोण रहित हन।
६लिवलीन।
७हथ जोड़।
८नमसकार करदे हन।
९(तां जो) प्रसंन होण।
१०ब्रहमा।
११पाप नाश होण।