Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२४

आप गुरू ने दई गुर गादी।
सो अब कारज कोण न करो
परमारथ के हित सिज़ख अबादी।
दासनि को अुपदेश बतावहु
नाम जपावहु जे परमादी१।
संगति ब्रिंद की पंगति मैणथिति होइ करीजहि मंगल शादी२ ॥२१॥
दासन की बिनती सुनि कै
गिनती तजि आन सु बाहर आए।
पीत है रंग, सु दूबरे अंग,
अुमंग महां गुर जोण दरसाए३।
देखति भे तिनि४ दासन को
गुर नानक पास जु थे समुदाए।
प्रेम प्रवाहि५ बधो अुर मैण
अुचरो तबि एक शलोक बनाए ॥२२॥
स्री मुखवाक:
म २ ॥
जिसु पिआरे सिअु नेहु तिसु आगै मरि चलीऐ ॥
ध्रिगु जीवंु संसारि ता कै पाछै जीवंा ॥२॥
सैया: श्री मुख ते इम बोलि प्रभू
सभि बीच गुरू तबि बैठि गए।
जे सिज़ख हैण समुदाइ तहां
तिन दे दरशन परसंन कए*।
धीरज दीन भजो सतिनाम,
रहे तिस धामु, अहार६ खए।

१भुज़ले होए जो हन।
२अनद मंगल।
३(भावेण) रंग पीला ते अंग लिसे सन
(तद बी सिज़खां ळ जदोण) दरशन होए (तां बड़ी) अुमंग चड़्ह गई (किअुणकि) महां गुर (भाव गुर
नानक) वरगे(गुरू जी) नग़र आए।
(अ) रंग पीला ते अंग लिसे हन, (पर) महां अुमंग होई जदोण गुरू जी दे दरशन होए।
४(गुरू अंगद जी ने) डिज़ठा।
५प्रेम दी लहिर।
**पाछ-भए।
६प्रशादि।

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