Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११)१२२
१७. ।मज़खं शाह ळ गुरू जी दा वरजंा॥
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दोहरा: सगल वसतु को देखि करि, श्री गुर परम क्रिपाल।
मुख मज़खं की दिशा करि, बूझनि कीनि हवाल ॥१॥
चौपई: सभि वसतू कैसी इह लाए?
करहि रौर कोण नर समुदाए?
तैण अबि संझ पई किम आवा?
आयुध बंधे मुख दरसावा ॥२॥
सुनि मज़खं हरखंति बखाना।
जिन तुमरो कीनसि अपमाना।
महां मंदमति निदक पापी।
दुशट दुरातम दुख संतापी ॥३॥
तिस मसंद को बंधन करो।
धीरमज़ल के निकटि, न हरो१+।
वसतु तुमारी लूटि जि लीनसि।
तिन ते मैण छीनसि दुख दीनसि२ ॥४॥
रावर को अपराधी आनोण।
जिस ने आइ कुकरम कमानोण।
गुर कुल ते अुपजो लखि करि कै।
हतो न धीर मज़ल हम धरि कै३ ॥५॥
मुझ देखति अपराध तुमारो।
कोइ जि करहि दुरातम भारो।
ऐसे शसत्र प्रहारनि करि हौण।
मारनिकरौण, कि लरि कै मरि हौण ॥६॥
सुधि पहुची जबि ही मुझ डेरे।
तबहि दौर मैण आइ अदेरे४।
धीरमज़ल को दोश बडेरा।
मैण इम लखि कै लूटो डेरा ॥७॥
१अुस मसंद ळ (जो) धीरमल दे कोल सी बंन्ह लीता है, पर (जानोण) नहीण मारिआ।
+पा:-निहरो।
२(जिन्हां ने तुसां ळ) दुज़ख दिज़ते सी अुन्हां तोण खज़स लिआइआ हां।
३फड़ के।
४छेती।