Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १२२

१५. ।काबल दे सिज़ख तोण शाह ने घोड़ा खोहिआ॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>१६
दोहरा: इस बिधि बसि करि लवपुरी, केतिक मास बिताइ।
संगति आवहि दरस को, प्रथम सुधासर न्हाइ ॥१॥
चौपई: श्री हरिमंदर करि करि दरशन।
सुनि पुन आइ गुरूपग परसन।
बली तुरंग शसत्र बहु आनहि।
सतिगुर हेरि खुशी तिन ठानहि ॥२॥
चारोण चज़कन केर मसंद।
आनहि गुर को दरब बिलद।
अनगनि भीर नई नित आवै।
वसतु अमोल अकोर चढावैण ॥३॥
जहि कहि ते हय आछो टोरि।
दे दे दरब लाइ गुर ओर।
शसत्र पुलादी तीछन महां।
बरछे, बान आनि१ जहि कहां ॥४॥
धनुख तुफंग मोल बड देति।
अरपि गुरू ढिग खुशी सु लेति।
देश बिदेशनि चारहु दिशि मैण।
छोटे बडे नगर जिस किस मैण ॥५॥
सतिगुर की सिज़खी जग मांही।
जहि नहि हुइ, अस थल को नांही।
जहि कहि सुजसु चंदोआ तनो।
नहि को अस, जिन सुनो न भनो ॥६॥
दोहरा: सज़ता अरु बलवंड जुग, हुते रबाबी पास।
करति कीरतन राग धुनि, सभि अुर देति हुलास ॥७॥
चौपई: पहुचो अंत समां तबि तिन को।
लवपुरि ताग दीनि निज तन को।
अपर रबाबी बाबक नाम।
जो गावति रागनि अभिराम ॥८॥
राखो तबि हग़ूर ने पास।


१लिआणवदे हन।

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