Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ९) १२५
१६. ।दारा ते गुरू जी दा मेल॥
१५ॴॴपिछला अंसूततकरा रासि ९ अगला अंसू>>१७
दोहरा: कीरति पुरि डेरा कियो, जसु गुर के सुनि कान।
अुर हरखो सुख को लहो, दारशकोह सुजान ॥१॥
चौपई: अपने अुमरावनि के साथ।
बोलो तबहि सुनी मैण गाथ।
श्री नानक भे पीरनि पीर।
जिन महि अग़मत महां गंभीर ॥२॥
बहु लोकनि को दीनसि गान।
करे अुधारनि बिदत जहान।
गादी पर तिन ते पशचात।
जो बैठे तिस जसु अविदात१ ॥३॥
संत अनेक बेस के मिले।
जहां प्रसंग इनहु का चले।
तहि तहि सुजसु सकल ने कहो।
बहु लोकनि शुभ मारग लहो ॥४॥
हमरे पिता पितामै केरे।
हुते पीर अग़मती बडेरे।
इस घर की राखति बडिआई।
मिलि मुरीद सम ग्रीव निवाई ॥५॥
रज़जू शर्हा२ जिनहु गर परी।
मूढ मुलानि३ सु चरचा करी।
बने असूयक४ गान बिहीने।
जथा अंध कर मांिक लीने ॥६॥
भए प्रभाती, चलैण अगेरे।
मिलि करि सुनि हैण बाक भलेरे।
संतनि को मिलिबो सुखदानी।
जग महि जिस के कोन समानी ॥७॥
इम कहि दारशकोहु सुजाना।१अुज़जल।
२शर्हा दी रज़सी।
३मूरख मुलांिआण ने।
४निदक। ईरखालू।