Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १२९
जहिण कहिण श्री गुर सुजस बिथारहिण१ ॥६॥
बहुर रबाबी किरतन गावैण।
सुनहिण बीच संगति हरखावैण।
बैठे रहैणसिंघासन फेर।
सिज़ख संगति सभि दरशन हेरि ॥७॥
दोहरा: श्री गुर नानक की सदा,
चरचा करति अुदार*।
जथा चरिज़त्र पविज़त्र बहु,
जग बचिज़त्र बिसतार२ ॥८॥
चौपई: अपर न चरचा कोई होइ।
जग कारज की जेतिक जोइ।
सूपकार३ करि तार अहारू।
सभि रस पाकहि, साद अुदारू ॥९॥
जबि सुधि देहि आन करि सोई।
श्री गुर जी! भई पाक४ रसोई।
अुठि क्रिपाल तिहि संग सिधारैण।
सखा सिज़ख सेवक ले सारै ॥१०॥
चतुर बरन तहिण समसर५ बैसहिण।
जैसे रंक, राव भी तैसहिण।
माटी के बासन६ हुइण सारे।
पज़त्रन महिण अच लेहि अहारे ॥११॥
जो चौणके महिण अचहि रसोई।
गुरू समीप जाइ नहिण सोई।
पंकति बीच बैठि गुर खांहि।
एक समान असन७ अचवाहिण ॥१२॥
१फैलावन।
*पा:-अुचार।
२जिस तर्हां गुरू जी दे पविज़त्र चरिज़त्राण दा खूबसूरत फैलाअु सी।
३रसोईआ।
४पज़क गई।
५इको जिहे।
६भांडे।
७भोजन।