Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 116 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १३१

चहुण द्रिश परवारति१ सिख आइ।
रुचिर रबाबी रागनि गाइण ॥१७॥
सकल प्रेम कहि सुनहिण सु दास।
जिन ते ब्रिंद२ बिकार बिनाश।
संधा समैण सु होइ इकंत।
निज सरूप महिण लै३ भगवंत ॥१८॥
बैठहिण एकाणकी इक जाम।
पुन प्रयंक पर करहिणअराम।
इस प्रकार निस दिवस बितावहिण।
सिज़खन ते सतिनामु जपावहिण ॥१९॥
आपन ढिग माया विवहार।
ग़िकर न होन देहिण किसि वार४।
हरख सोग जेतिक बिधि नाना।
इन को सिज़ख न करहिण बखाना ॥२०॥
इक रस ब्रिति समान जिन केरी।
राग न दैश, म्रिज़त नहिण बैरी।
सदा अनद प्रेम रस पागे।
श्री नानक जस सोण निति लागे ॥२१॥
गोरख आदि सिज़ध बड पूरे।
इक दिन करि बिचार सभि रूरे।
-श्री नानक गादी पर जौन।
कैसो अहै बिलोकहिण तौन ॥२२॥
आप५ सु हुते महिद महियान६।
करि दिगबिजै७ पुजे८ सभि थान।
पीर न मीर अरो नहिण आगे।


१अुदाले आ बैठदे हन।
२सारे।
३लीन हुंदे हन।
४किसे वेले।
५भाव गुरू नानक जी।
६बड़िआण तोण बड़े।
७हर पासे जै करके।
८पूजे गए।

Displaying Page 116 of 626 from Volume 1