Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १३२

हार सरब चरनी तिन लागे- ॥२३॥
इमि बिचारि सभि ही चलि आए।
सतिगुरु को निज दरस दिखाए।गोरख, भरथरि, चरपट साथि।
गोपीचंद, सु ईशुर नाथ ॥२४॥
आए सतिगुरु लेनि प्रतज़गा१।
पाइ प्रतीत भरम अुर भज़गा।
श्री अंगद सिंघासन२ बैसे।
आइ कही आदेश अदेशे ॥२५॥
तिनि के मन की सभि गुर जानी।
सादर मधुर भाखि करि बानी।
बैठारे आसन शुभ दए।
गोरख आदि प्रसंन मन भए ॥२६॥
कहिण अशटांगहि जोग महातम३।
बिना जोग नहिण निरमल आतम।
प्रिथम सकल जे भए महाना।
करि करि जोग सु पायो गाना ॥२७॥
तुम कलिजुग महिण भे अवितार।
गुरता गादी बैठि अुदार।
जोग जुगति नहिण पंथ तुमारे।
किस प्रकार सिख करहु अुधारे? ॥२८॥
बिना जोग सिधि४ हाथ न आवति।
बिना जोग बिज़गान५ न पावति।
गानी संत अनिक जग भए।
जोग साध सु परमपद६ लए ॥२९॥
सुनि श्री अंगद आशै तांही।
करनि लगे अबि समां सु नांहीण।


१प्रीखा ।संस: प्रतिज़गा = प्रण, प्रति = परसपर। गा = जाणना॥।
२गज़दी।
३फल।
४सिज़धी।
५पूरा गान।
६पूरन पदवी(मुकती)।

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