Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १३३
भगति जोग है मतो हमारा।
सिज़धां सरब रहैण दरबारा१ ॥३०॥
आतम गान भगति ही देति।
भगति करति सभि ही सुख लेति।
नाम आशरै जोग तुमारा।
सो सतिनाम हमहुण को पारा ॥३१॥
तन साधन हित जोग कमावहु।
पुन मन जीतहु नीठ२ टिकावहु।
सिज़धि३ आइ तबि ठांढी होइण।
तिन सोण परचो तुमरो जोइ ॥३२॥
बैस४ बधावन आदिक राचे।
जग दिखराइ मान को जाचे।
यां ते रहो अनातम५ मांही।
ब्रहमातम६ को जानहु नांही ॥३३॥
जोग जुगति ते छूछे रहे।
आतम को रस नांहिन लहे।
जिम श्री नानक जोग बखाना।
सो हम करहिण सुनहु तुम काना- ॥३४॥
स्री मुखवाक:
सूही महला १ घरु ७
ੴ सतिगुर प्रसादि ॥
जोगु न खिंथा७ जोगु न डंडै जोगु न भसम८ चड़ाईऐ ॥जोगु न मुंदी९ मूंडि मुडाइऐ जोगु न सिंी वाईऐ१० ॥
अंजन११ माहि निरंजनि१२ रहीऐ जोग जुगति इव पाईऐ ॥१॥
१सिधीआण सभ दरबार विच (हाग़र) रहिंदीआण हन।
२मसां मसां।
३सिज़धीआण।
४अुमरा।
५जो आतमा नहीण है।
६ब्रहम ते आतमा ळ। ब्रहम जो सरब दा आतमा है।
७ गोदड़ी पहिनं नाल।
८ सुवाह मलिआण।
९मुंदरा।
१०नाद वजौं नाल।
११माइआ रूपी सुरमां (कालख)।
१२माया रहत।