Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १३०
१७. ।घाट लघणा॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>१८
दोहरा: सुनति गिरिंदन हुकम को, सुभट पंच सै जाइ।
घाटा रोको अज़ग्र ते, महां बिखम जिस थाइ ॥१॥
चौपई: पुन सभि दल महि बजे नगारे।
जोधा सनधबज़ध भे सारे।
१शसत्र गहैण जे सनमुख होइ।
तौ हति देइ, दोश नहि कोइ ॥२॥
जे हथीआरन महि देण डार२*।
हाथनि जोरहि मानहि हार।
छीन छीन तबि देहु निकासी+।
सभि सुभटनि महि एव प्रकाशी ॥३॥
सतिगुर दल महि सुधि तबि गई।
देखहु कहां चमूं बड अई।
सुभट पंच सै गए अगारी।
घाटा रोको द्रिड़्हता धारी ॥४॥
घेरा परो तुमहि चहुफेरे।
मुशकल निकसनि बनै अगेरे।
जे अुपाइ तुम ते बनि आवै।करि लीजै नतु दल अबि आवै ॥५॥
सुनि सचिंत सभि के मन होए।
रुकिबे ते डर धरि सभि कोए।
अुलघन बनो कठन अबि घाटा।
रिपु दल हम जिम लोन रु आटा३ ॥६॥
कवन जतन हुइ चहु दिशि घिरे।
गिरपति क्रितघन सभि मन फिरे।
जे करि घाटा है न अगारे।
१इह हुकम मिलिआ सैना ळ।
२जे हथिआर धरती ते सुज़ट देण। (
अ) (जे हथीआ = जे हथयार रण विज़च सिज़ट देण।
*पा:-कहि ले डार।
+कितनी नीचता है कि आप दिज़ता निअुणद्रा तां न लओ पर लुट के लै लओ।
३आटे विज़च लूं।