Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १३२
पुरि सिरं्हद को मारि अुजारा।
अबि निकसै करि जंग अखारा* ॥२९॥
लशकर ते सो गयो पलाई।
दुरग बिखै घेरो परि जाई।
तोहि बैस लगि सलतन सारी।
बनी रहै हम जथा अुचारी ॥३०॥
पाछे घने अुठहि अुतपाता।
अुजरहि देश होहि नर घाता।
जिन कौ कोइ न सकहि मिटाई।
ऐसे परहि रौर समुदाई ॥३१॥
तोहि बाप कियपाप कलापे।
तिस करि कुल ते सलतन खापे।
अवनी पति हैण अनिक प्रकारे।
अरनि लरनि अरु अरिनि प्रहारे१ ॥३२॥
सुनि करि शाहु बहादर हरखो।
-मोहि राज थिर हुइ- अुर परखो।
पाछे की पाछे हुइ जैसे।
करहि ुदाइ लखहि को कैसे ॥३३॥
श्री सतिगुर! तुम मोहि सहाइक।
भूत भविज़ख विघन के घाइक।
शरन परे की पति मम राखी।
भई साच जिम रावर भाखी ॥३४॥
दिहु आइसु अबि करौण चढाई।
दरशन करौण बहुर मैण आई।
श्री मुख ते मुसकति फुरमायो।
दरशन होइ रहे जिम भायो२ ॥३५॥
गमनहु बिचरहु दज़खिं देश।
करि लीजै अनुसारि अशेश।
*पिछे सिज़ध कर आए हां कि गुरू जी सिरं्हद मारन वेले सचखंड पान कर चुज़के से।
१अड़के लड़नगे अते शज़त्रआण ळ मारनगे।
२दरशन हो रहे हन (अज़गोण) जिवेण (साईण ळ) भावेगा। (अ) जिवेण (तेरा) प्रेम होएगा दरशन हो
रहिंगे।