Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) १३३

१५. ।मुगलसखान युज़ध॥
१४ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>१६
दोहरा: बहु धौणसनि धुंकार को, सुनि सिख आए दौरि।
श्री हरिगोविंद सोण कहो, सुनहु गुरू सिरमौर! ॥१॥
चौपई: आगे दूरि हुते हम खरे।
जबि के कतल भए रिपु मरे।
तकराई हित इक सौ ठांढे।
पकरे शसत्र सज़त्र हित गाढे ॥२॥
जेतिक तुरक समूह भगैल१।
अरु जेतिक राखे निज गैल२।
सभि करि इकठे रिसि को ठानि।
आप चढो अबि मुगलसखान ॥३॥
गन निशान बाजति अबि आवैण।
बादति३ अपर अनेक बजावैण।
फररे छुटे निशान अगारी।
आवति दल जुति बड हंकारी ॥४॥
सावधान हूजहि गुरु पूरे!इकठे करहु निकटि गन सूरे।
अबि कै इक हज़ले के तुरका४।
बिजै डंक तबि बाजहि गुर का ॥५॥
लखा ढिग नगारची अहा।
खास गुरू के जो नित रहा।
सैनापति अपरनि के जुदे।
निज निज मिसलि रहति जद कदे ॥६॥
श्री हरिगोबिंद बाक अुचारे।
दुहरी चोबनि हनहु नगारे।
करहु सूर सज़जी५ रिपु मारैण।
अबि के थिरहि न१, भाज पधारैण ॥७॥


१काइर।
२आपणे पिज़छे।
३वाजे।
४इक हज़ले दी, (मार) तुरक हन।
५सूरमिआण ळ तिआर बर तिआर करे।

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