Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ११) १३६
१९. ।धीरमज़ल दीआण चीग़ां मोड़ीआण॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ११ अगला अंसू>>२०
दोहरा: सुनि जननी के बाक को,
दुचिता मज़खं जानि।
बहुर कहो१ नहि देर करि,
जाहु धीरमज़ल थान ॥१॥
चौपई: फेरहु२ वसतु जितिक तिन केरी।
निज धन को भी दीजहि फेरी*।
चंचल लछमी थिर न रहति है।
आए सुख, चित गई दहति है३ ॥२॥
लोभी इस हित पाप अनेक।
करति करति म्रितु लहि अबिबेक।
जोण प्रभु राखै तिम इह रहै।
शबद बिखै श्री नानक कहैण ॥३॥स्री मुखवाक:
सिरीरागु महला १ घरु ५ ॥
अछल छलाई नह छलै नह घाअु कटारा करि सकै ॥
जिअु साहिबु राखै तिअु रहै इसु लोभी का जीअु टल पलै ॥१॥
चौपई: छल ते छली न जावहि माया।
आदि कटार न आयुध घाया।
तअू नरनि के मन टल पलै४।
-हम सो सभि ते बहुती मिलै- ॥४॥
संचनि, पालनि, नाश मझार।
दुख दायक धन को निरधार।
भो मज़खं! कोण चिंता करैण।
देहु धीरमज़ल अुर दुख हरै ॥५॥
लोभी धन ते सुख को चाहै।
निस दिन इह तिन के अुर दाहै।
अपर बिचार करहु नहि कोई।
१(गुरू जी ने) किहा।
२मोड़ दिओ।
*सतिगुरू जी दी छिमा, वैराग ते तिआग दी अवधी सही हो रही है।
३जाण (वेले चित ळ) साड़दी है।
४भाव नराण दे मनां ळ साईण तोण टालदी ते पलटा देणदी है।