Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 123 of 405 from Volume 8

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) १३६

१८. ।खोजे अनवर ळ हार॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>१९
दोहरा: बेर तीसरी फेर जबि, बाग़ी दई लगाइ।
बस नहि मूरख को चलहि, दुख जुति दरब हराइ ॥१॥
चौपई: श्री सतिगुरू प्रथम डल डालति।
निज नरदनि के जुग करि चालति१।
तुरक गेरते जुग२ नहि आवै।
राखै दाव सु अुठनि न पावै ॥२॥
जहां नरद तिस की मिलि जाइ।
आनहि दाव हतहि तिस थाइ।
पौबाराण, कै आनि अठारा।
खोड़स, पंद्रहि, कै दसचारा ॥३॥
तुरक तीन काने कै चार।
पांच तीन को नौ३ निरधार।
कबि जुग चलन४ तुरक ढिग आवै।
नांहि त बिछरी नरद चलावै ॥४॥
पुन घट बाढ चलनि को लागा।
छल ते जीत चहनि अनुरागा।
जथा हली रुकमी संग५ अरो।
खेलति कूरघात सो करो६ ॥५॥
तथा चहै मूरख करिवाई।
लगहि दाव घट, बाढ चलाई।
तअू छिमानिधि छिमा धरंते।
जहां धरहि तहि मार करंते ॥६॥
पुन पौणबारा राखो दाव।
करति अुपाव न सको अुठाव।
आनि ढुकी बाग़ी तबि नेरे।


१नरदां दा जोटा चलाअुणदे हन।
२जोटा।
३अंक दो ते तिंन विच चौपड़ दे दावाण दे नां हन।
४कदे कदे जोटे दी चाल।
५बलभज़दर रुकमण दे भाई नाल।
६खेडदिआण झूठा दाअु अुसने कीता सी।

Displaying Page 123 of 405 from Volume 8