Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १३७

१७. ।काग़ी दा झगड़ना॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>१८
दोहरा: अगले दिन सतिगुरु गए, सुंदर अंग तुरंग।
करो बिलोकनि सकल को, कर फेरो हित संग ॥१॥
चौपई: फुरकावति घोरा हरखायो।
सनै सनै निज पाव टिकायो।
दिन तीनक महि रुज परहरो।
त्रिं समुदाइ रु दाना चरो ॥२॥
दिन प्रति बली पुशट सभि अंग।भयो प्रिथम सम तबहि तुरंग।
सतिगुर सुवरन१ ग़ीन पवायो।
हीरन जड़ती गन दमकायो ॥३॥
बसत्र शसत्र पहिरनि करि तन मैण।
भए अरूढ गुरू तिस छिन मैण।
भयो तुंद२ हरखति फुरकावै।
सने सने असु फांदति जावै ॥४॥
गए वहिर को फेरो थोरा।
मन अनुसार चलति मग* घोरा।
शारत हाथ पांव की करे।
नट सम गिन गिन पाइनि३ धरे ॥५॥
सतिगुरु चढि प्रसंन अति होए।
सिज़ख काबली थिर हुए जोए।
हाथ जोरि चरननि पर परो।
मोर मनोरथ पूरन करो ॥६॥
रिदे भावनी जिम करि लायो।
निज नेत्रनि सोण तिम द्रिशटायो।
करहु खुशी, गमनहु निज पुरि को।
अुपजी शांति महां सुख अुर को ॥७॥
सिख की शरधा अरु पिखि प्रेम।

१सोने दी।
२तोग़।
*पा:भा।
३पैराण ळ।

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