Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 125 of 626 from Volume 1

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४०

११. ।भाई जीवा, गुज़जर लुहार, नाई धिंा, पारो जुलका प्रसंग॥१०ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १ अगला अंसू>>१२
दोहरा: अबि श्री गुर अंगद निकटि,
सिज़ख भए जो आइ।
कहोण कथा निरधार करि१,
सुनहु संत चित लाइ ॥१॥
चौपई: सेवक रहै पास इक जीवा।
सेवहि शरधा धरे सदीवा।
दधि२ सोण खिचरी करि कै तारि।
लाइ अचावति३ अपर अहार४+ ॥२॥
इक दिन घटी चार दिन रहो।
गुर सोण हाथ जोर बच कहो।
आज चलति है बायु अंधेरी।
हटहि नहीण निरनै करि हेरी ॥३॥
बडी निसा बीते हटि++ जाइ।
अब तौ बहित महां रज छाइ५।
बाक आप को होवै जबै।
मिटहि अंधेरी रज६ सोण सबै ॥४॥
करि लेवोण मैण तुरत अहारा।
तुमहि अचावौण बिबिधि प्रकारा।
बहुरो चलहि जथा अबि अहै।
श्री अंगद सुनि तिस ते कहैण ॥५॥
ऐसो नहीण मनोरथ करीअहि।
जिस ते महां दोश सिर धरीअहि।
परमेसुर जो बायु बहाई।


१निरनै करके।
२दहीण।
३खुलाअुणदा।
४भाव खिचड़ी तोण वज़खरे होर खांे।
अज़गे अंग पंज विच बिबिध प्रकारा लिखिआ है।+पा:-अपर अपार। भाव श्री गुरू जी ळ।
++पा:-मिट।
५बहुत मिज़टी छा रही है।
६धूड़ी।

Displaying Page 125 of 626 from Volume 1