Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १३८

१९. ।रामराइ बाबत धीरमल दा गुरू जी ळ कहिंा॥
१८ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि १० अगला अंसू>>२०
दोहरा: रामराइ पाती लिखी, धीरमज़ल के साथ।
अपनी महिमा बहुत बिधि, जिम बीती सभि गाथ ॥१॥
चौपई: सुनि ताया जी! इह बिपरीत।
जोण मैण करी लखहु शुभ रीति।
दिज़ली पुरि महि अवरंग१तीर।
मिलनि हेतु किसहु न धरि धीर२ ॥२॥
ठटक रहे लखि क्रर बडेरा।
मानहि गुर न साध किस बेरा३।
अग़मत जुति केते मरिवाए।
बिदति सभिनि महि नहि गुपताए ॥३॥
अलप आरबल तिस दिन मेरी।
आइसु मानी गुर पित केरी।
बिन संसै तारी करि लीनि।
सतिगुर बच पर निशचा कीनि ॥४॥
मरनि आदि को भय निरवारा।
हुकम मानि मारग पग डारा।
पहुचो जाइ तुरक पुरि बीच।
जहां संत द्रोही मति नीच ॥५॥
पूरब कीनहि कपट बडेरा।
छांग४ जिवावनि को तबि प्रेरा।
खाल असथि मैण सांभ सु धरे।
काग़ी सदन पठनि पग करे ॥६॥
भई भोर हठ कीनि बिसाला।
-छांग जिवाइ देहु इस काला-।
असथी चरम नहीण जे राखौण।
कहां जिवावनि पुन अभिलाखौण ॥७॥
बिगर सु परति* तुरक मद मज़ता।

१औरंगग़ेब।
२किसे ने धीरज नहीण सी धारिआ औरंगग़ेब ळ जा के मिलं दा (गुरू जी वलोण)।
३गुरू ते साध ळ किसे वेले नहीण इह मंनदा।
४बकरा।

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