Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति २) १३७

१८. ।नद चंद दा आअुणा॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति २ अगला अंसू>>१९
दोहरा: सुनि कलीधर प्रशन को, नद चंद कर बंदि।
बरनन करो प्रसंग सभि, कथा* गिरेणद्रन ब्रिंद१ ॥१॥
चौपई: हौण अलपज़ग लाज अुर लागे।
तुमरी बात कहौण तुम आगे।
जे गिरपति हैण मूढ गुमानी।
साथ रावरे बैर महानी ॥२॥
तअू आप के बूझन करे।
कहिबे को मम चित अनुसरे।
क्रिपा धारि तुम दाइज दीना।
हम कौ न्रिप ढिग भेजनि कीना ॥३॥
मिले जाइ आदर बड ठाना।
हम कहि सिवर कीनि मैदाना।
रावर रोकि बरात हटाई।
सुधि सभि स्री नगरै सुनि पाई ॥४॥
भए तार हम आवनि इत को।राखे फतेशाह करि हित को।
-होइ गिरेशन मेल बिसाला।
इह तंबोल बड दिहु तिस काला ॥५॥
पसरहि सुजसु सतिगुरू केरा।
तिन के साथ होइ बड मेरा।
वसतु अजाइब को सभि हेरहि।
वधहि वाहि अुतसाह घनेरहि- ॥६॥
इज़तादिक म्रिदु बाक बखानहि।
सुनि हम रहे, नीक करि जानहि।
दिवस कितिक महि आइ बराती।
करो ढुकाअु खरच धन थाती ॥७॥
निज निज रीति कीनि दिशि दोअू।
भए मुदति चित महि सभि कोअू।


*पा:-सो भए।
१सारे पहाड़ीआण दी कथा दा प्रसंग।

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