Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४१

इस ते बहु कारज निबहाई१ ॥६॥
सरितापति२ महिण अनिक जहाज।
नरनि हग़ारहुण लादि समाज३।
बहु बिवहार करहिण हित रोग़ी।
दीपनि गमनहिण४, लाहा खोजी ॥७॥
बहुत दिवस के टिकि सो रहे।
अबि चलाइ बायू इहु लहे*+।
हित अहार के करहिण कमाई।
तिस मिस५ देति तिनहुण जगराई६ ॥८॥
धरती जहां तांब्र७ की अहै।
लाखहुण बिसीअरि८ तिस थल रहैण।
तिन हित धूल९ जाइ तिस देश।
निज कुंडल१० महिण लेत अशेश११ ॥९॥
तिस को खाइ निबाहैण काल१२।
आपो अपनी लेति संभाल।
लाखहुण अहैण छुधातुर१३ सेई।
प्रभु पहुणचाइ पालि है तेई१४ ॥१०॥
इस ते आदिक काज बिसाल१५।
करहि प्रमेसुर बायू नाल।


१सरने हन।
२समुंदर।
३समिज़ग्री।
४टापूआण ळ जाणदे हन।
*+पहिले समेण जहाज इक खास रु अुज़ते हवा दे चज़ल पैंनाल ही चज़लिआ करदे सन।
५इस बहाने।
६ईशवर।
७तांबे।
८सज़प।
९धूड़।
१०लपेट (अ) मुख।
११सारी।
१२झज़ट लघाअुणदे हन।
१३भुज़ख नाल दुखी।
१४अुन्हां ळ।
१५बड़े कंम।

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