Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रतापसूरज ग्रंथ (ऐन २) १३८
कितिक समैण इस कहति बितायो।
अुठि सलाम हित सीस झुकायो।
पंच रुपज़ये प्रभू दिवाए।
ले इनाम गमनोण हरखाए ॥३१॥
सिंघनि परखो गुर को खालू।
बात बिपरजै करति बिसालू।
हाथ जोरि तबि अरग़ गुग़ारी।
-तुरक लखहु रिपु- तुमहि अुचारी१ ॥३२॥
आइसु अचल२ आप की अहै।
जथा बायु ते भूधर रहे३।
अबि इह खान आप सनमाना।
निकट बिठारि सनेह महाना ॥३३॥
चौपर खेलति देति इनामू।
रुख करि मानहु तांहि सलामू।
संसै सभि सिंघन कै होवा।
नयो सुभाव आप को जोवा ॥३४॥
श्री मुख हसे तबहि गुनखानी।
सादर सभि सन कीनि बखानी।
सुनहु खालसा काम हमारा।
परो इसी के हाथ अुदारा ॥३५॥
इस को ददा सूरमा बली।
गुर निज ढिग राखो बिधि भली।
दई जंग की अधिक बडाई।
तिस ही पर शमशेरचलाई ॥३६॥
यां ते अुपजी मन हम करुना।
लरका भयो सनेहै करना४।
इम कहि सिंघन को संतोशा।
दासन के भरोस बिन दोशा५ ॥३७॥
१आप ने अुचारिआ है कि तुरक ळ वैरी जाणो।
२अटज़ल।
३जिवेण वायू नाल पहाड़ चलाइमान नहीण हो सकदा।
४(पैणदे दी कुल विच) लड़का (पैदा) होइआ है; पिआर करना चाहीदा है।
५बिन दोश (भाव गुरू) जी ने दासां ळ भरोसा दिज़ता।