Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४२

अबि जे कहि करि पौन मिटावैण।
बिगरहि काज छुदिति१ रहि जावैण ॥११॥
प्रभु सरबज़ग सफल क्रित२ धरै।
का अलपज़ग३ तरकना४ करै।
लाखहुण जीवनि कौ संताप।
मेटहि पौन, दोश लेण आपि? ॥१२॥
इह मनमुख की रीति पछानै।
हुवति मिटाइ, कि तरक बखानै५।
जथा करहि प्रभु, पिख हरखंते६।
नहिण तरकहिण, कहि कै ना मिटंते ॥१३॥
सो गुरुमुख, सुख प्रापति होइ।
संकटि सहै न लोकहुण दोइ।
तूं करिबे चित चहति अहारे।
घटी चार करि लेहु पिछारे ॥१४॥
हटहि न जे, प्रभाति करि लीजै।
धरहु न चिंता, आनद कीजै।
सतिगुरु अर प्रभु७ जथा रजाइ।
तिस पर राजी रहिन सदाइ ॥१५॥
मुज़ख धरम सिज़खी को एही।
जो धारहि सिख गुरू सनेही।
जिम पतिज़ब्रता इसत्री लछन।पति आगा महिण सुखी बिचज़छन८ ॥१६॥
प्रभु आगा महिण तथा सदीवा।
रहु राग़ी बनि गुरमुख, जीवा!
जप तप बरत दान फल सारे।


१भुज़खे।
२अुह करनी जिस विच लाभ है।
३भाव जीव।
४हुज़जतां।
५हुंदी ळ (चाहे कि इह) मिट जावे या हुज़जत करे (कि इह किअुण हुंदी है)।
६प्रसंन हुंदे हन।
७प्रमातमां दी।
८सिआणी।

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