Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) १४०

१६. ।गुरू जी दी विजय॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>१७
दोहरा: मचो जंग दारुन महां, तबि दिदारली आइ।
पैणदा खान बंगारिओ, जनु निज काल बनाइ१ ॥१॥
पाधड़ी छंद: हय को धवाइ* दोनहु सु बीर।
लिय चांप आप खर संधि तीर२।
कीने प्रहार इति अुतहि धाइ।
दुहु दिशनि सूर लगि अनिक घाइ ॥२॥
ढलकंति ढाल, चमकंति तेग।
थरकंति छटा घन जोण सबेग३।
लगियंति घाइ, गिरियंति बीर।
धरियंति धीर, भजियंति भीर ॥३॥
भभकंति घाइ, ढरियंति श्रौं४।
दलियंति दीह, बुझियंति कौं५।
घुमियंति हूर, बरियंति सूर।
हरखंति हेरि, बरखंति नूर ॥४॥
सज़यद दिदारली तजि खतंग।पिखि पैणदखान के हनति अंग।
पहिरे संजोइ, नहि लगति कोइ।
सहि डोब लोह महि देहि सोइ६ ॥५॥
बहु करि अुपाइ हथियार डारि।
इति अुति धवाइ कहि है प्रहारि।
तबि पैणदखान गन तजति बान।
-गर कवच७ तांहि नहि चुभहि- जानि ॥६॥
इमि अुर बिचार तकि कै तुरंग।
हति तीर तांहि के भाल अंग।

१आपणी मौत बणा के।
*पा:-फंधाइ।
२तीर जोड़े।
३जिवेण बज़दलां विच बिजली छेती छेती लिशकदी है।
४लहू ढलदा भाव वगदा है।
५कौं जाणिआण जावे भाव कोई पछांिआण नहीण जाणदा।
६अुस दी देह लोहे विच डुबी होई है।
७संजोइ।

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