Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४३

इस ते प्रापति होइण सुखारे ॥१७॥
सिमरहु सज़तिनाम करि प्रीति।
तागहु तनहंता इमु नीति।
ब्रहगान तबि पाइ सुखेन।
जनम मरन पुन बनहि कदे न* ॥१८॥
सुनि जीवे तब बंदन करी।
सतिगुरु सीख भली अुर धरी।
कोइक दिन महिण गानी होवा।
एकहु रूप सरब महिण जोवा१ ॥१९॥
जीवति रहो करी गुर सेवा।
तन तजि लै हुइ ब्रहम अभेवा२।
गुज़जर नाम सु जाति लुहार।
चलि आयहु गुरु के दरबार ॥२०॥
बंदन करि बैठो गुर पासि।
दरशन देखि करी अरदास।
सुनहु गुरू जी!हेत अहार।
दिन सगरे हम ठानहिण कार ॥२१॥
फसे ग्रिहसति पाइ न अविकाश३।
सेवा करहिण रहहिण तुम पास।
हमरो भी किम हुइ कज़लान।
जनम मरन दा४ बंधनि हानि ॥२२॥
सुनि सतिगुर कीनसि अुपदेश।
इक चित जपुजी पठहु हमेश।
जेतिक वार पठो५ नित जाइ।
पठति रहहु६ दीरघ फल पाइ ॥२३॥


*तातपरय सतिगुराण दी सारी कथा तोण हुकमि रजाई चलंा तोण है, वाखा सिखां दी भगत माल
दीआण हन।
१देखिआ।
२अभेद।
३समां, विहल।
४देण वाले।
५पड़्हिआ।
६पड़्हदे रहो।

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