Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरजग्रंथ (राशि ४) १४१
१८. ।सुलही सड़ मोइआ॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ४ अगला अंसू>>१९
दोहरा: अुतरो कोठे ग्राम ते, वहिर सैन जिह संगि।
सेवा सभि बिधि की करी, प्रिथीए धारि अुमंग ॥१॥
चौपई: ग़ात१ हेतु दरब लै गयो।
जाइ सु डेरे प्रापति भयो।
तंबू मैण मिलि कै सो दयो।
गुरु घर कुनका भाखति भयो ॥२॥
सुलही कहि सभि क्रिपा तुमारी।
कोण धन धरो सु लाइ अगारी।
नहीण लेति बरबस इन दीनो।
सेवा ते प्रसंन अति कीनो ॥३॥
मसलति हित इकंत हुइ बैसे।
कहि प्रिथीआ अबि करिहो कैसे?
दिन प्रति धनी अधिक रिपु होवा।
खरचो बहु सुत बाहु संजोवा२ ॥४॥
शाहु त्रास भी नांहिन मानहि।
अुमरावनि को कछू न जानहि।
शाहु दिवान सुता को नाता।
मोरो कहि कूकर बज़खाता ॥५॥
सोहि अचरज होइ तिस देखे।
सभि सोण करहि हंकार विशे।
अबि लौरोम न बाणको होवा।
वधति प्रताप अधिक ही जोवा ॥६॥
सुनि सुलही ने धीरज दीनो।
शाहु संग आवति कहि लीनो।
बहुर चंदू को सकल जनाई।
शाहु समीपी रहहि सहाई ॥७॥
पहुचति श्री अरजन गहि लै हौण।
करि बंधन१ किस दुरग गिरै हौण।
१प्राहुणचारी। प्रीती भोजन।
२रचाके।