Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुरप्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन १) १४३
इक इक दिन को धन लिहु पाई।
पुनहि समा जबि घनो बितावहि।
गुर ते दरब चाकरी पावहि ॥३६॥
इह मसलत मिलि मूढ पकाई।
गुर महिमा न लखैण अधिकाई।
दान सिंघ इक बार हटाए।
इम नहि लेहु बुरा हुइ जाए ॥३७॥
हाथनि जोरि जाचना करीए।
-खरच देहु घर पठहि बिचरीए।
जिस ते खान पान सभि होइ।
अपर आमदन रही न कोइ- ॥३८॥
दै हैण सतिगुर नांहिन राखैण।
१सम सोण ले, बुरा नहि भाखै१।
दान सिंघ ते सुनि बैराड़।
नहि माने चहि करन बिगाड़ ॥३९॥
अपनी हज़द बिखै हम लै हैण।
आगे गए नहीण किम दै हैण।
इहां जोर हमरो अबि चलै।
जाचहि दरब सरब ही मिलै ॥४०॥
करि मसलत इकठे हुए फेर।
तजि तुरंग गे गुरू अगेर।
खरे भए आगे समुदाई।
देहु चाकरी सभि हम तांई ॥४१॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम ऐनेणश्री गुर गमन प्रसंग
बरनन नाम खोड़समो अंसू ॥१६॥
१शांती नाल लवो ते माड़ी गज़ल कई नां कहो।