Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) १४३१९. ।लशकर चड़्ह आइआ॥
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दोहरा: अनवरखान विचारि कै, चतुराई अुपजाइ।
कहो गयो गुर के निकटि, भेत पाइ सुध लाइ ॥१॥
चौपई: अबि लौ सुध गुर को नहि होई।
कीनसि नहीण सुचेती१ कोई।
लरहु जामनी महि करि हेला।
करि लैहो सभि काज सुहेला ॥२॥
कुछ थोरी सी चमूं निहारी।
परहु बिबर कीजहि मारी।
काज सुगम ही जे बनि जाइ।
दानशवंद न बिलम लगाइ ॥३॥
तुम समरथ हो अधिक जदापी।
सज़त्र न गिनीअहि अलप कदापी।
कनका पावक२ सुगम बुझज़यति।
बन लगि बधहि३ न किमहु मिटज़यति* ॥४॥
प्राति होति लौ लरहु न जाई४।
बनहि सुचेत लेहि सुध पाई।
दीरघ लरहि कि जावहि भाजि।
बडे जतन ते बनि है काज ॥५॥
सुनि पैणदे खां भले सराहा।
इम ही बनहि, हनहि रण मांहा।
कारज होइ, सु करि ही लिहि।
म्रिग जिम सिंघ जान नहि देहि ॥६॥
फते करहु लहिु सुजसु बडाई।
हग़रत निकटिचलहु हरखाई।
सभि के मनसब होइ सवाए।
हय समेत गुर देहु पुचाए ॥७॥
१तकड़ाई।
२तीले ळ लगी अज़ग (अ) अज़ग दा किंका।
३बन तक (अज़ग) वध जावे तां।
*पा:-जगे बिलद न बुझे लखज़ति।
४जा के जे ना लड़ोगे।