Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४६

बासन धोवै मांझ बनायु१ ॥३५॥
कबि कबि गुर की सेवा पाइ।
महां प्रेम ते करहि बनाइ।
इक दिन श्री अंगद के पास।
हाथ जोरि कीनी अरदास ॥३६॥
श्री सतिगुर मुझ दिहु अुपदेशु।
जिस ते मिटहिण कलेश अशेशु२।
सुनि श्री मुख ते तबि फुरमायो।
गुरू गोर३ महिण सो चलि आयो ॥३७॥
हुइ मुरीद४ मुरदे मानिद।
अंग न को हालति बिन जिंद५।
तिम मुरीद आदिक हंकारा६।
ताग देति ए सकल बिकारा ॥३८॥
गुरू गोर महिण जाइ समाइ।
हुइ मुरीद मुरदा जिसि भाइ*।
देखि जात अपनी भा सैन७।
करीसेव संतन की रैन ॥३९॥
प्रेम परख करि श्री भगवान।
बने सैन के रूप सुजान।
राणे को इस रीति रिझायो८।
बखशी तबि कवाइ९ हुलसायो+ ॥४०॥
तिस के सम संतन की सेवा।

१मांज बणा के।
२सारे।
३कबर।
४चेला।
५(जिवेण) जिंद तोण बिना कोई अंग नहीण हिज़लदा (मुरदे दा)।
६हंकार आदिक (सारे विकार)।
*मुरदा होण तोण मुराद मर जाण दी नहीण, ना निकारा होण दी है, परंतू पूरन सज़त ळ समझं ते
दज़से मारग ते टुरन विच आपणे अड़बपुंे, हैणकड़, आपणी राइ दे अभिमान ळ छज़डं तोण मुराद
है।
७देख! तेरी जात विच (अज़गे इक) सैं नामे भगत होइआ है।
८मोहित कीता।
९पोशाक ।अ: कबा॥।
+पा:-बखशिश करी रिदा हुलसायो।

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