Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १०) १४४२०. ।गुर जी दा अुज़तर। वापस कीरतपुरि आअुणा॥
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दोहरा: सुनि माता! भ्राता! सुब्रिज़त१, इह नहि किस के हाथ।
करै अुपाइ न प्रापती, दाता इक जग नाथ ॥१॥
चौपई: सभि के बडे आदि श्री नानक।
परखति गुननि गान मनि मानिक।
जिन ते परे अपर नहि कोई।
महति महति महीआनहि सोई२ ॥२॥
तिन की करी सरब सिर धरैण।
बिनां बिचारे मानो करैण।
सभि बिधि शुभ सुत लाइक हुते।
नहि आइसु इक मानी किते३ ॥३॥
सो लखि दोश, दास को दीनी।
श्री अंगद गुरता तबि कीनी।
दासू दातू जुग सुत भए।
सभि बिधि के लाइक लखि लए ॥४॥
श्री गुरु अमर साथ मतसरी।
नहीण सरलता अुर महि धरी।
अंत समेण नहि लाइक जाने।
नहीण थिराए अपनि सथाने४ ॥५॥
तिम श्री अमरदास सुत परखे।
नहि आगा को सुनि मन हरखे।
श्री गुर रामदास निरमान।
मतसर आदिक दोशन जानि ॥६॥
निज सथान पर आप बिठाए।
कहिसभिहिन के सीस निवाए।
तिन को प्रिथीआ जेशट नद।
निज मति को चित गरब बिलद ॥७॥
आणख तरे नहि आनति काणहू।
१सुवित = भले, नेक।
२वडिआण दे वडिआण तोण वी वडे हन ओह।
३इके (इह दोश) वेखिआ कि आगिआ नहीण मंनी किसे ने।
४भाव गज़दी ना दिज़ती।