Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ५) १४४
१८. ।काग़ी ते कौलां॥१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ५ अगला अंसू>>१९
दोहरा: काग़ी अरु ब्रिध बाद को,
सुनो गुरू निज श्रोन।
अति संचित चित मैण भए,
बैठे अंतर मौन ॥१॥
चौपई: -इह का ब्रिध मुख बाक बखाना।
काग़ी को दमाद मुझ ठाना।
झगरति लरति सु क्रोध अुपायो।
हम बैठे कहु स्राप अलायो ॥२॥
असमंजस हम को बडि भए।
जे दमाद काग़ी बनि गए।
जग अपजस पसरहि जहि कहां।
कहहि सिज़ख इह कीनसि कहां ॥३॥
माता सुनति कहहि का बैन।
पिखि अजोगता किसहुं न दैन।
का हम करहि न बनहि अुपाइ।
सभि जग महि अपबाद चलाइ- ॥४॥
अस चितवति चित करि थिर लोचन१।
भए सोच बसि सोच बिमोचन।
-दुह दिशि ते अतिशै कठनाई।
किह तागहि, किह करहि बनाई ॥५॥
अुतै अमेलि तुरकनी लावनि।
इत बड सिज़ख को बाक हटावनि।
जिन के बचन संग हम जनमे।
जिस को कहो प्रधान सुरन मे२ ॥६॥
जिस के कहे अचल चल परैण।
अहैण सदा गति से सभि थिरैण३।
कौन समरथ करहि बच मेटनि।१नेत्र।
२देवतिआण विच मुज़खता रखदा है।
३चलने वाले सारे टिक जाणदे हन।