Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४७

करहु सदा रीझहिण गुरुदेवा।
सुनि अुपदेश कमावनि कीनि।
धरो प्रेम सिज़खी पद लीनि ॥४१॥
सभि कुटंब को भयो अुधार।
जिम काशट से१ लोहो पार।
पारो जुलका नाम सु आयो।
सुनि जस को मिलिबे ललचायो ॥४२॥
नमसकार करिबैठो पासि।
हाथ जोरि कीनसि अरदासि।
श्री गुर परमहंस हुइ कौन?
लछन मोहि सुनावहु तौन२ ॥४३॥
सुने नाम अर रूप निहारे।
नहिण विशेश ते हम निरधारे।
तुम ते सुनहिण जथारथ जानै।
को गुन ते तिन अधिक बखानै? ॥४४॥
श्री अंगद सुभ मति जुति हेरा३।
हित अुपदेश कहो तिस बेरा।
परमहंस के सुनीअहि लछन।
सुनि जे धरहि सु मनुज बिचज़छन४ ॥४५॥
हंस जि मान सरोवर रहैण।
मुकता५ करहिण अहार जि लहैण।
मिलि इक रूप होत पय६ पानी।
तिन के आगे धरिय जि आनी ॥४६॥
पय ते जल को करहिण निराला।
सार असार पिखहिण ततकाला।
तजहिण अखिल जल७, पय को खांहि।


१काठ नाल।
२तिसदे।
३स्रेशट मज़त दे सहित देखके।
४जो धारन करे ओह मनुख सिआणा है।
५मोती।
६दुज़ध ते।
७सारा पांी।

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