Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ६) १४५
१८. ।घेरा जारी। भाई कन्हया जी॥
१७ॴॴपिछला अंसू ततकरा रुति ६ अगला अंसू>>१९
दोहरा: इस प्रकार गोरे चले, लगे सु लशकर मांहि।
झंडा टुटि जुग खंड भा, तंबू थिरे सु नांहि ॥१॥
सैया: खान वजीद, लहौरपती जुग,
देखि कै गोरनि की अस मारा।
छोरि भजे अपनो थल तां छिन
आयुध ना तन चीर संभारा१।
वाहन कौन अुडीक करै तबि
होइ बिहाल भजे सिरदारा।
बीच थिरे दल आपन के नहि,
तूरन दौरि कै कीन किनारा ॥२॥
गोरन की अस मार करी
जुग तोप छुटैण तबि बारंबारा।
मार दीए तुरकान महां भट
कीन बिचार न है अुपचारा।
भाजति हैण तजि कै पट आयुध,
त्रास भयो तुरकान मैण भारा।
फूटि गए सिर, टूटि गए पग,
छूटि गए हज़थार न धारा२ ॥३॥
-३दीरघदूर इती लगि आवहि
तोप दराज कहां अस भारी?
ब्रिंद बिते दिन कीने निवेस को
कोइ न पहुचि सको नहि मारी।
आज कहां इह कौतक भा
जिम पूरब तीर अए इक बारी।
हिंदुनि को इह पीर कहावति
है करामात कि आइ अगारी४? ॥४॥
अंग तुरंगनि भंग भए,
१ना शसत्र ते ना सरीर दे बसतर ही संभारे।
२धारे होए हज़थार वी छुज़ट गए।
३सोचदे हन:-
४(इह) करामात ही है जो अज़गे आए हन (गोले)।