Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) १४५
१६. ।स्री अरजन देव जी ताए संहारी जी नाल लाहौर गए॥
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दोहरा: दोनहुण पुज़त्र समीप पित, आनि बंदना कीनि।
संहारी को नमो किय तिन, पिखि आशिख दीन ॥१॥
चौपई: महांदेव के संग अुचारा।
जाहु बाहु पिखि भ्रात तुमारा।
लवपुरि महिण इस के संग जाइ।
मिलो तहां बंधू समुदाइ ॥२॥
सुनि करि बोलो मसत सुभाअू।
को१ बंधू किस को? कित जाअूण?
नहिण मेरी किस साथ चिनारी।
नहिण चाहौण मैण करन अगारी ॥३॥
ता सनबंधुनि की२ गति अहै?
अपनो हित सभि हेरति रहैण।
दरब हीन पखि होहिण न नेरे।
धनी पुरश के बनहिण घनेरे ॥४॥
मो ते नहिण तहिण जायहु जाइ।
आवन जावन श्रम को पाइ।
इम कहि मौन रहो तिस काल।
जुगम पुज़त्र इम हेरि क्रिपाल ॥५॥
-नहिण आगा को मानहिण मेरी।जानति अपुनी सुमति बडेरी-।
तबि श्री अरजन की दिश देखा।
जिन को म्रिदुल सुशील विशेा ॥६॥
पित के सनमुख पिखहिण न सोइ।
प्रति अुज़तर कहिबो किमि होइ।
कर जोरे थिर नम्रि अगारी।
सुत अरजन! बनि आइसुकारी३ ॥७॥
निज ताअू के संगि सिधावहु।
१कौं है।
२साकाण दी।
३आगाकार।