Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ७) १४५
१६. ।श्री हरिराइ जनम, मालवे वल टुरना॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ७ अगला अंसू>>१७
दोहरा: श्री गुरदिज़ता सुख बसे,
रचि कीरति पुरि चारु।
करे सकेलन लोक तहि,
बसे मोद को धारि ॥१॥
चौपई: केतिक मास बसति दिन टारे।
नाना बिधि के करति शिकारे।
सेवहि दास संग समुदाए।
दरब आदि मनु कामन पाए१ ॥२॥
म्रिदुलबाक ते नर सनमानहि।
सुख दे नगर बसावन ठानहि।
नती गरभ प्रथम सम धरो२।
वधो चंद सम भागनि भरो ॥३॥
समोण प्रसूत होनि को आयो।
सुंदर समा सुखद दरसायो।
मकर रास महि सूरज बासा।
त्रैदस बासुर बीते मासा ॥४ ॥
पुरि जन अनद अचानक होवा।
मानव सभि दिशि महि सुख जोवा।
सवा जाम जबि रही त्रिजामा३।
जनमो पुज़त्र बदन अभिरामा ॥५॥
देवन आनि अरचना करी।
बार बार कुसमांजुल झरी४।
औचक संख शबद को सुनो।
जै जै शबद मिले सभि भनो ॥६॥
मिलि दासी गन मंगल गायो।
श्री गुरदिज़ता सुनि हरिखायो।
चहुंदिशि ते गन देति बधाई।
१मन दी कामना पाअुणदे हन।
२पहिले वाणूं (फेर) गरभ धारन कीता।
३रात।
४फुज़लां दे बुक भर भर झड़ी ला दिज़ती, भाव फुज़लां दी बरखा कीती।