Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४८

अुडहिण, बिदेशनि देशन जाणहि१ ॥४७॥
परमहंस तिन ते अधिकाइ२।
मुकतामुकती३ चहति सदाइ।
मानस गुरू सबद के मांही४।
लेति अहार अपार++ रहांही५ ॥४८॥
देहि आतमा मिलि इक भए।
बिन बिचारि किन नहिण लखि लए।
तिन कौ प्रिथमै होति बिचार।
दिन प्रति देहि न रहि इकसार ॥४९॥
प्रथम न हुती भविज़ख न रहै६।
मज़धु कुतो७ साची तिसु कहै?
पुन जड़्ह है कुछ नाहिन छानी८।
नित दुख रूप लेहि मन जानी ॥५०॥
सज़ति आतमा निरनै करहि।
पूरब हुतो९, देहि बहु धरहि।
अबि१० प्रतज़ख अरु रहै भविज़ख११।
यां ते सज़ति लखहि गुरु सिज़ख ॥५१॥
बहुर आतमा चेतन जानहिण।
जिह सबंध तन चेतन ठानहिण१२।


१अुज़ड के देशां प्रदेशां ळ जाणदे हन।
२वज़ध।
३कलिआन रूपी मोती।
४मान सरोवर रूपी गुराण दे शबद विच। (अ) शबद अरथात जगत विच गुरू रूपी मान सरोवर
विचोण।
++पाछ-अधार।
५(मान सरोवर विचोण मुकती रूपी मोती दा) भोजन लैणदे हन ते अुस दे विज़चे रहिणदे हन। ।अपार =
जो पार नहीण, भाव विज़चे॥ (अ) भाव परमेशुर विच रहिंा (इह) अहार लैणदे हन ।अपार = पार
तोण रहत, ब्रहम॥।६नहीण सी अते नां ही अगांह ळ रहेगी।
७विचकार कौं।
८कोई छुपा नहीण।
९पहिले सी (आतमा)।
१०हुण।
११अगांह ळ।
१२जिस दे सबंध होण करके तन चेतन हुंदा है।

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