Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १४९
फरकावन चख आदि रिखीके१।
जिस बिन होति नही लखि नीके ॥५२॥
पुन आतम को रूप अनद।
परखति भले सदा, बिन दुंद।
बिशियन बिखै अनणद कलपंता।
इहु मम रूप न, अज़ग लखंता२ ॥५३॥
परमहंस सो कहीअहि रूप।
सति, चेतंन, आनद अनूप।
तन ते नारो जानहिण ऐसे।
मंदरि बिखै बसहि को जैसे ॥५४॥
तिस को अपनो रूप पछानहि।
तन हंता३ निरनै करि हानहि।
सम मंदिर के जानहि नारो।
जीरण४ होए ताग पधारो ॥५५॥
तन आतम समसर पय पानी५।
करहि जु नर हुइ हंस समानी।
तिन को परमहंस है नामू।
पावहिण ब्रहम गान अभिरामू ॥५६॥
तन ते नारो जबि मति धरैण।
रसु बिशियन हित पाप न करैण।
जल ते कमल रहै निरलेपू।
लिपहि न किमि हुइण ब्रिंद विखेपू६ ॥५७॥सूरज की दिश है तिनि धान।
छुवै न जल रंचक भरि आनि।
१अज़ख आदि इंद्रिआण दा फुरकंा।
२विशिआण विच अनद दी कलपना करदा है ते इह मेरा रूप नहीण अज़गानी (इह गज़ल) नहीण
लखदा। -न-देहुरी दीपक है।
(अ) अज़गानी इह गज़ल नहीण समझदा कि अनद तां मेरा सै सरूप है, मैण जु विशिआण विच अनद
दी कलपना कर रिहा हां (इह झूठी है)।
३हंकार।
४पुराणा।
५पांी तोण दुज़ध वाणू जो तन तोण आतमा ळ (जुदा कर सके)।
६किवेण बी लिपाइमान नहीण हुंदा, भावेण किंने विखेप (दुख) होण ।संस: विकशेप = घबरा, ब्रिती
दा खिंडाअु॥।