Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (ऐन २) १४६
पुन एकल ही प्रभ को हेरि।
जमधर मारी दूसर बेर।
भुज के तरे गयो सो वार।
लगी न तन को थिरे जुझार ॥४४॥
पुन धरि धीर तीसरो मारा।
लाग अुदर महि केतिक फारा।
लगे घाव ते कोप बिसाले।
जमधर दूजी धरी संभाले ॥४५॥
ततछिन श्री प्रभु वार प्रहारयो।
अुदर पठान शज़त्र को फारो।
अूची धुनि भाखो तिस बेरे।
है को सिंघहमारे नेरे? ॥४६॥
सुनति शबद को ततछिन आए।
नांगे खड़ग गहे कर धाए।
पिखि लखा सिंघ परो पठान।
बल ते हनी क्रिपान महान ॥४७॥
काटि ग्रीव ते सीस अुतारा।
परो रौर सुनि इत अुत भारा।
प्रभु जी कहो प्रथम ही मरो।
काहे खड़ग प्रहारनि करो ॥४८॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे अुज़तर ऐने घाव प्रसंग बरनन नाम
अशटदसमोण अंसू ॥१८॥