Sri Gur Pratap Suraj Granth

Displaying Page 134 of 459 from Volume 6

स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ६) १४७

१७. ।शहीदां दा ससकार। झबाल पुज़जे॥
१६ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ६ अगला अंसू>>१८
दोहरा: भयो दुपहिरा लरति बहु,
राति जाम ते जंग।
तीन पहिर महि हनि दई,
सैना सहत तुरंग ॥१॥
चौपई: बिचरे सतिगुरु रण थल हेरा।
श्रों मास ते भीम घनेरा।
लोथहि पर लोथैण बहु परी।
सहत हयनि बडि सैना मरी ॥२॥
इति अुति फिरि सभि देखति भए।बहु लोहगड़ को गुर गए।
तहां सिज़ख जे मरे निहारे।
बिधीचंद सोण बाक अुचारे ॥३॥
हय दिहु बंधि लेहु नर संगि।
मरे सिज़ख भट करि करि जंग।
सभिहिनि की लिहु लोथ अुठाई।
इक थल करहु म्रितक समुदाई ॥४॥
हुकम पाइ बिधीए ततकाल।
ले मानव गन अपने नालि।
जहि कहि ते सिख अपने भाले।
मरे मिले गन तुरक बिसाले ॥५॥
जिस थल गुरु के महिल बिलद।
तहि इकठी करि लोथैण ब्रिंद।
हेत बाह को काशट परो।
सो सभि ले करि तिस थल धरो ॥६॥
आपि गुरू बैठे तिस थान।
आनि आनि धरि म्रितक महान।
मोहन सहत गुपाला दोइ।
सिसकति१ परे, अुठाए सोइ ॥७॥
सतिगुरु के ढिग ले करि आए।


१सहिकदे।

Displaying Page 134 of 459 from Volume 6