Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ३) १४८

१६. ।कुज़ता ग़हिर वाला दहीण खा मर गिआ॥
१५ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ३ अगला अंसू>>१७
दोहरा: भई प्रात अुठि बिज़प्र ने हरि गोबिंद ले गोद।
इत अुत लगो खिलावने गंगा दिखति प्रमोद ॥१॥
निसानी छंद: दासी दधि लावति भई, बहु मधर मलाई१।
अलप कटोरा रजत२ को, जिस महिनित खाई।
तबि दिज निज कर मोण लियो, सभि आणख बचाए।
घर अूपर घर३ गयो तहि, नहि अपर दिखाए ॥२॥
धरो कटोरा ताक महि४, सो पुरी निकारी।
दधि महि दीनसि झारि करि, बिच अंगुरी मारी।
नीको दियो मिलाइ कै, नहि लखीअहि नारे।
धरकति छाती त्रास करि, इत अुतहि निहारे ॥३॥
बिज़प्र छिज़प्र को करति भा, गहि हाथ कटोरा।
लगो पिलावनि अुपरे, करि मुख की ओरा।
श्री गुर हरिगोबिंद जी, सभि अंतरजामी।
नाक ऐणठ फेरो बदन, लखि कै दिज खामी५ ॥४॥
दिज ने बल ते मोर मुख, किय समुख कटोरा।
बाक क्रर ते झिरकतो, हाअू इत ओरा।
आवहि६ गहि लै जाइगो, नातुर दधि पीजै।
अधिक मधुर है साद मैण, नहि देरि करीजै ॥५॥
हरिगोबिंद श्री गुर तबै, जानो -मुख लावै७।
छल ते बल को करति है, बिख द्रजन८ पिलावै-।
निज कर सोण बिख दधीमिलि९, दीनो सु हटाई।
निकट न मुख को करति भे, इत अुत फिरि जाई ॥६॥
बिज़प्र क्रोध को करि तबहि, ताड़ति झिड़कंता।


१मिज़ठी मलाई वाली दहीण।
२चांदी दा।
३भाव चुबारे ते।
४बारी विच।
५ब्रहमण दी खुटिआई।
६हअूआ इस पासिओण आवेगा।
७मूंह ळ लांवदा है।
८दुरजन। खोटा।
९विहु नाल मिली दहीण।

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