Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि ८) १५०
२०. ।जंग आरंभ॥
१९ॴॴपिछला अंसू ततकरा रासि ८ अगला अंसू>>२१
दोहरा: सतिगुर हरिगोविंद जी, बडे बहादुर धीर।
मार निकासो खान को, लखि निदक बेपीर ॥१॥
पाधड़ी छंद: करि खान पान सवधान बीर।
करतार पुरे चहुं दिशनि भीर।
हुइ सनध बज़ध भट अरध जोइ।
बिसराम हेतु लिहु अरध सोइ ॥२॥
तुरकान सैन ते बनि सुचेत।
सुनि शबद अुठहु सभि जंग हेतु।
गुलकाण बरूद लीजहि संभाल।
सुनि सुभट गुरू के बलि बिसाल ॥३॥
गुर हुकम पाइ है कै सुचेत।
गरजे बिलद बड* जंग हेतु।
गहि सिपर खड़ग कट कसनि कीनि।
निजनिज तुरंग पर पाइ ग़ीन ॥४॥
हुइ सनधबज़ध फिरते चुफेरे।
तुरकान हानि रण चहि बडेरे।
जबि सवा जाम रहि गी सु राति।
गुर गिरा१ पढति सिख फिरत जाति२ ॥५॥
धुनि अुठति अूच सुनियंति दूर।
करतार पुरे चहु गिरद भूर।
जबि सुनी आनि तुरकान कान३।
अुर भए शुज़ध करि कपट हानि ॥६॥
तबि कालेखां बोलो सुनाइ।
अबि भयो नेर जानो सु जाइ।
सम कातुर दुंदभि नहि बजाइ४।
इहु अनुचित गति, नहि मुहि सुहाइ ॥७॥
*पा:-सभि।
१गुरबाणी।
२तुरदे फिरदे।
३तुरकाण ने सुणी (बाणी दी धुनि)।
४काइराण वाणग (जो असीण) धौणसे नहीण वजाअुणदे।