Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५३

मरति नहीण नीके निरधारो।
जे करि जुज़ध आनि कित परै।
अलप कि बहुते++ नहीण बिचरै ॥१२॥
पीठ न देहि समुखि रिपु१ रहै।
निरभै शसत्र बहै जस लहै।
जग महिण प्रापति ब्रिंद पदारथ।
ले सतिसंगति लाइ सकारथ ॥१३॥
जे रण महिण सनमुख म्रितु पावै२।
सरग निसंसै३ सूर सिधावै।
इम दै लोकनि अुज़जल आननि४।
करि कज़लान एव निज प्राननि ॥१४॥
मज़लू शाही सुनि अुपदेशु।
बरतं लागो तथा हमेशु।
वंड खाइ निज धरम विचारै।
आतम तन सज़तासत धारै५ ॥१५॥
इक सिख आयो नाम किदारी।
सतिगुर आगै बिनै अुचारी।
काम क्रोध महिण जलतो जगत।
मोहि अुबारहु करि निजि भगत ॥१६॥
त्रास पाइ मै शरनि तिहारी।
आनि परो दिहुआसर६ भारी।
सुनि कै श्री अंगद तिस कहो।
सकल बिकारन ते जग दहो ॥१७॥
जिम दौ७ लगो महां सभि बन को।
फांध जाति म्रिग करि बल तन को।


++पा:-थोरे।
१साहमणे वैरी दे।
२साहमणे मर जावे।
३बिनां शज़क दे।
४मुख अुज़जले।
५आतमा ळ सज़त ते तन ळ असज़त निशचे करे।
६आश्रा।
७दावा अगनी।

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