Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (रुति ४) १५१
२०. ।भाई दया सिंघ जी दी आगिआ नाल रातीण मोरचा करना॥
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दोहरा: भीमचंद को मोरचा, सुभट ब्रिंद जिस मांहि।
तित दिश गमनो खालसा, हित मारन अुतसाहि ॥१॥
रसावल छंद: गए सिंघ बीरं। धरे चांप तीरं।
कराचोल ढाले। किनू लै संभाले ॥२॥
सु नेजा अुभारे। छुरे पै कटारे।सरोही निकासे। दुधारे प्रकाशे ॥३॥
महां सावधाना। समं एक जाना१।
बली बीर बंके। मुछैले निशंके ॥४॥
चलाए जुझारे। इकै मेल वारे२।
करैण खान पाना। इकै थान वाना३ ॥५॥
हटै कौन पाछे। लरैण अज़ग्र बाणछे।
संमहूं पहारी४। तुफंगैण प्रहारी ॥६॥
कछू नाद श्रोतं५। लखो घात होतं।
कहो आप मांही। इतै कौन आही? ॥७॥
बनो रे सुचेतं। तजो नीणद हेतं६।
सुनोण जानि लीने। सवाधान कीने ॥८॥
तबै सिंघ गाजे। कहां जाहि भाजे।
अबै होहु ठांढे। लखैण खज़ग बाढे७ ॥९॥
किधौण त्रास धारौ। पलीजै पधारौ८।
न आवौ लराई९। चले जाहु धाई ॥१०॥
चाचरी छंद: कहंते। सुनते। लराई। मचाई ॥११॥
प्रचारैण१०। प्रहारैण। क्रिपानै। महांनै ॥१२॥
१इको जेहे जवान।
२इज़को मेल वाले भाव मिज़त्र।
३इको थान खां पीं वाले।
४बहुते पहाड़ीआण ळ।
५कुछक आवाग़ सुणी।
६नीणद दा पिआर छज़डो।
७खंडिआण दीआण धाराण वेखो।
८दौड़के चले जाओ।
९लड़ाई विच ना आओ।
१०वंगारदेहन।