Sri Gur Pratap Suraj Granth
स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि २) १५२
१७. ।भा: तीरथा, बिशनदास, मांक चंद, पादरथा, तारू भारू प्रति अुपदेश॥
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दोहरा: सभरवाल सिख तीरथा१,
आइ गुरू के पास।
नमसकार करि बैठिगा,
धरहि श्रेय की आस ॥१॥
चौपई: श्री गुर! मैण आयो तुव शरनी।
श्रेय दे जु अुपदेशहु करनी२।
रावरि मुख ते सुनहिण जु बैन।
बिनसहिण पाप होति चित चैन ॥२॥
तबि स्री रामदास अुपदेशा।
-सचु सम अपर न पुंन विशेशा।
सचु सरूप परमेशुर केरा।
सचु ते पायहि साचु बसेरा॥३॥
दुहि लोकन महिण सुख लहि साचो।
सुर सनमानिह जो साचु राचो।
साचु पुरख के सतिगुर संगी।
बडि पुंननि ते साचु प्रसंगी३ ॥४॥
सुमति बिचारु साचु ही कहैण।
सूखम भेद एक इमु लहैण।
साचु कहे किस को हुइ बुरो।
तहां कूर कहि, सचु परहरो ॥५॥
इस पर इक प्रसंग सुनि लेहू।
निरनै करि पुन कहनि* करेहू४।
थिरो साध इक न्रिप के दारे।
बैठे केतिक मास गुग़ारे ॥६॥
सो न्रिप पुज़त्र बाहु करि आयो।
सरब प्रकार अुछाहु वधायो।
१तीरथा नामे सज़भरवाल जाति दा खतरी।
२जो करनी मुकती देवे अुह अुपदेशो।
३मेली।
*पा:-ग्रहिन।
४भाव आखे।