Sri Gur Pratap Suraj Granth

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स्री गुर प्रताप सूरज ग्रंथ (राशि १) १५७

पारो परम प्रेम करि++ चित कौ ॥३७॥
पति रजाइ महिण राग़ी रहै।
बिछुरे, निति मिलिबे कहु चहै।
जावत मिलहि न, रचहि अुपाई१।
अहै सुखद पति बिन दुखदाई ॥३८॥
दीरघ सास परी मुख पीरी।
अज़श्र बहहिण, धरहि नहिण धीरी।
जो तिस पति की बात सुनावै।
सेवा करहि प्रेम को लावै ॥३९॥
पति परमेसुर प्रेम पछानै।
मिलहि प्रिया२ सोण रलीआ ठानै*।
तिन के बसि हुइ फिरहि३ पिछारी।
इमि हरि भगति लेहु अुर धारी ॥४०॥
सुनि सतिगुर के बाक सुहाए।
तीनहु भगति भए सुख पाए।
सतिसंगति की सेवा लागे।
प्रेम प्रमेसुर को मनु जागे ॥४१॥
मज़लू शाही आदिक सारे।
स्री अंगद केरहे दुआरे।
श्री गुरु अमरदास ढिग रहैण।
करि सिज़खी को शुभ गति लहैण ॥४२॥
इन सोण मिले अपर सिज़ख होए।
सतिगुरु जस को रिदे परोए।
बडे भाग जिन के जग जागे।
गुर मिलि प्रभू प्रेम महिण पागे४ ॥४३॥
इति श्री गुर प्रताप सूरज ग्रिंथे प्रथम रासे सिखनि प्रसंग बरनन
नाम दादशमोण अंसू ॥१२॥


++पा:-पारो परमेसर करि।
१जद तक ना मिले अुपाअु करे।
२पिआरी नाल।
*पा:-मानै।
३(परमेसुर) फिरदा है।
४रप गए।

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